अभी नए वर्ष और क्रिसमस के खुशगवार दिनों में हमें काम से थोडा आराम मिला. चूँकि सारे अमेरिका में यह समय मस्ती और छुट्टियों का ही होता है तो हमने भी बस समझ लीजिये की बहती हडसन नदी में हाँथ धो लिए. हडसन, वैसे यहाँ तमाम लोगो की प्यास बुझती है लेकिन ये भी सच है कि जैसे जीवन में माँ का स्थान कोई नहीं ले सकता, तो उसी तरह नदियों में माँ गंगा का स्थान कोई भी नहीं ले सकता. अगर हम सच कहे, तो जो शांति हमें काशी, ऋषिकेश या हरिद्वार में गंगा किनारे मिलती है दुनिया में और कही भी नहीं मिलती.
यहाँ ऐसे दिनों में जब सारा शहर बर्फ से ढका था, और करने को कुछ खास काम नहीं था तो विचार आया कि क्यों न भारत का इतिहास टटोला जाये. वैसे अगर भारत का इतिहास कोई पढ़ना चाहे तो कहिये सालों लग जाये और अगर समझाना चाहे तो एक सूत्र में ही समझ जाये, “वसुधैव कुटुम्बकम”. भारतीय जीवन शैली ही कुछ ऐसी है कि यहाँ सब के लिए स्थान है, और सब के लिए सम्मान है.
भारत के इतिहास के बारे में सोचते हुए, मेरे विचार विश्व के महानतम कूटनीतिज्ञो और राष्ट्र भक्तो में से एक “आचार्य विष्णुगुप्त” पर आ कर रुक गए. ये वो परम राष्ट्रभक्त और शिक्षक शिरोमणि है जिन्हें लोग कई नामों से जानते है जैसे कौटिल्य, अंशु और चाणक्य. इनका जन्म उस दौर में हुआ था जब भारतवर्ष एक राष्ट्र से अधिक कई जनपदों का एक समूह था. कही पर निराकुश शासक थे तो कही पर उदासीन जनसमूह, एक राज्य दूसरे राज्य से, एक जनपद दूसरे जनपद से युद्ध के लिए उन्मुक्त थे.ऐसे वक़्त में, भारतवर्ष को एक नए युग के सूत्रपात की आवशकता थी.
इश्वर ने भारतवर्ष को नए युग में ले जाने का साधन “आचार्य विष्णुगुप्त” को बनाया, जिनका जन्म आचार्य चणक के पुत्र के रूप में मगध के पाटलीपुत्र में हुआ.नन्द वंश के अत्याचारी राजा के बैर के कारण बालक विष्णुगुप्त का बचपन बड़ा कष्टमय बीता, लेकिन उन्होंने विद्या का मार्ग पकड़ा और तक्षशिला आ गए. यहाँ, माँ सरस्वती की कृपा से राष्ट्र को शसक्त और सबल बनाने में जुट गए. आचार्य विष्णुगुप्त सही अर्थ में एक सच्चे भारतीय, शिक्षक और विचारक थे. उस समय जब भारतवर्ष का निरंतर पतन हो रहा था तो आचार्य ने देश को एक सूत्र में बंधने का सपना देखा.
निरंकुश और शक्तिशाली सिकंदर, जो जग विजय के अभियान पर निकला था वो भले ही कुछ राजाओ से जीत गया हो लेकिन वो एक शिक्षक के नेतृत्व में उठ खड़े होते जनमानस से हार गया था. भारतवर्ष ही वो स्थान था जहाँ पर उसकी सेना ने प्राण भय से सिकंदर के आदेश की अवहेलना करी थी. भारतवर्ष ही वो स्थान था जहाँ के ऋषि मुनियों ने सिकंदर के अन्दर ज्ञान का प्रकाश डाला, कि मनुष्य कितनी भी जमीन क्यों न हथिया ले परन्तु उसे अंत में सिर्फ उतनी जी जमीन की जरूरत होगी जिसमे वो दफनाया जा सके या जलाया जा सके.
यह आचार्य चाणक्य का ही अथक प्रयास था जिसने सारे भारतवर्ष को एक सूत्र में जोड़ा और चन्द्र गुप्त जैसा सबल और सार्थक शासक दिया. आचार्य चाणक्य का सारा जीवन यह दर्शाता है की एक शिक्षक में कितनी शक्ति होती है. इन्होने सारे विश्व को दिखा दिया कि अगर एक शिक्षक चाहे तो एक गाय/बकरी चराने वाले बालक को भी संपूर्ण भारतवर्ष का सम्राट बना सकता है.
आज सारा देश जब जातिवाद, धर्मवाद, भ्रष्टाचार और न जाने कितनी ही समस्यों से ग्रसित है, देश को चाणक्य जैसे शिक्षको की जरूरत है. जो अपनी दीक्षा में राष्ट्रवाद पढाये, जो विद्यार्धियो को उनकी जाति के आधार पर नहीं योग्यता के आधार पर चुने. हमें उस परिस्थिति से बचना होगा जहाँ शिक्षक सिर्फ कुछ विषय पढ़ा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर देते है. देश के शिक्षको के ऊपर बहुत ही बड़ी जिमेदारी है, यही वो लोग है जिन्हें भारत के भविष्य बनाने वालो को बनाना है. देखकर दुःख होता है जब कुछ शिक्षक अपने स्वार्थ के लिए शिक्षा का व्यापार करने लगते है. देश में अगर शिक्षक ही डगमगा गए तो भारतवर्ष के मान और संस्क्रति को बचाना मुश्किल हो जायेगा.
[समर्पित: “डॉ. कृपा शंकर शुक्ल” – पूर्व प्रधानाचार्य सीतापुर राजकीय विद्यालय. हिंदी के महान सेवक और राष्ट्रभक्त]
[आभार: “डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी” – इतिहासविद एवं निर्देशक धारावाहिक “चाणक्य”]
[तथ्य: “सिकंदर” ने म्रत्यु से पहले अपने निकट व्यक्तियों से कहा था कि, मरने के बाद मेरी हथेली खुली रखना, जिससे लोग यह देख सके कि इतना बड़ा सम्राट भी मरते समय खाली हाथ ही गया था]
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